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दुर्भावनाओं से ग्रसित नामी-गिरामी कलमकार !!

कडुवा सच
कडुवा सच
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हालांकि यह सवाल खडा करना कि कलमकार दुर्भावनाओं से ग्रसित होते हैं, खुद को सवालों के कठघरे में खडा करने जैसा है ! सवाल के उठने के सांथ ही आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ सकता है किन्तु आलोचनाओं से बचने या भागने के चक्कर में इस महत्वपूर्ण व ज्वलंत विषय पर लिखने से खुद को रोक पाना मुश्किल है ! वर्त्तमान समय में फेसबुक पर नए, उभरते, संघर्षशील, स्थापित, कलमकारों से अक्सर सामना पड़ते रहता है सामना पड़ने से तात्पर्य रु–ब–रु मुलाक़ात से नहीं है वरन उनके लेखन से सामना होने से है, जिसमें कवि, लेखक, आलोचक, समीक्षक, विश्लेषक, सभी तरह के कलमकार हैं जिसमें कुछेक मीडिया जगत से भी हैं !

फेसबुक पर सामान्यतौर पर छोटी–छोटी पोस्टों का चलन ज्यादा है दो लाइन, तीन लाइन में कलमकार जो उसकी मर्जी में आता है ठूंस देता है, प्रभावशाली कलमकारों के द्वारा ठूंस दी गई दो–तीन लाइनों को पढ़कर कभी कभी तो हंसी आ जाती है, हंसी इसलिए कि अगर कोई नया–नवेला कलमकार लिखे तो कोई बात नहीं किन्तु नामी–गिरामी लोग लिखें तो पढ़कर हंसी निकलना जायज है ! कभी कभी तो ऐसा लगता है कि इतना प्रतिष्ठित कलमकार और इतनी वाहियात लेखनी, जिसे पढ़कर अजीब सा महसूस हो, क्या करें वहां पर टिप्पणी की इच्छा होती है पर बड़ी मुश्किल से खुद को भिड़ने से रोकना पड़ता है, रोकना इसलिए कि यदि नहीं रुके तो टिप्पणी के परिणाम स्वरूप तना–तनी की पूर्णरूपेण संभावना रहेगी, तना–तनी न हो ये और बात है !

इस चर्चा के असल मुद्दे पर आते हैं कि कलमकार दुर्भावनाओं से ग्रसित हैं यह कैसे जान पड़ता है ! तो सुनिए, जब एक जाना–माना स्थापित कलमकार, क्रिकेट टीम में खिलाड़ियों के चयन पर जातिगत चर्चानुमा पोस्ट ठेल दे कि फंला जाती के लोगों को स्थान नहीं है फंला जाती के लोगों को महत्त्व ज्यादा मिल रहा है वगैरह वगैरह ! ठीक इसी प्रकार कोई स्थापित व चर्चित कलमकार यह पोस्ट लगा दे कि अन्ना हजारे के आन्दोलन का विरोध करते हैं, कोई यह लिखे कि जन लोकपाल के गठन से क्या भ्रष्टाचार मिट जाएगा, भईय्या कोई मुझे ये बताये कि क्रिकेट टीम के चयन में जात–पात की चर्चा का औचित्य क्या है, ठीक इसी प्रकार जब आप अन्ना हजारे जैसी सकारात्मक पहल नहीं कर सकते तो विरोध करने की जरुरत क्या है, भ्रष्टाचार मिटेगा या नहीं यह तो लोकपाल के गठन के बाद समझ आयेगा फिलहाल तो सारा का सारा देश भ्रष्टाचार की चपेट में है जब कोई सार्थक व सकारात्मक पहल हो रही है तब सवाल खड़े करने की जरुरत क्या है !

ठीक इसी प्रकार यह सर्वविदित सत्य है कि वर्त्तमान में अपने देश में ईमानदार लोगों को तलाशना कठिन काम है, अब जो लोग अन्ना हजारे के समर्थन में खड़े हैं वे कितने ईमानदार हैं या कितने बेईमान हैं इस सवाल को उठाने की जरुरत ही क्या है ! क्या बेईमान हैं तो अच्छे, सार्थक व सकारात्मक कार्य में योगदान नहीं दे सकते, जरुर दे सकते हैं और देना ही चाहिए, अभी तक किसी ने पहल नहीं की थी इसलिए बेईमान थे किन्तु अब इमानदारी के रास्ते पर चल पड़े हैं ! अब इन बुद्धिमान कलमकारों को कौन समझाये कि रातों–रात तो कोई काम हो नहीं सकता, सार्थक व सकारात्मक पहल तो करनी ही पड़ेगी, और जब कोई सार्थक व सकारात्मक कदम उठा रहा है तो उसमें नुक्ताचीनी की जरुरत क्या है ! मेरा तो ऐसा मानना है कि कलमकारों को जातिगत, राजनैतिक, व्यक्तिगत व सामाजिक दुर्भावनाओं से परे रहकर सार्थक व सकारात्मक लेखन की ओर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए, और यदि आलोचना करना जरुरी ही है तो सभी पहलुओं पर गंभीर मनन–चिंतन के बाद ही पहल करनी चाहिए, न कि क्षणिक वाह वाही के लिए जो मन में आये उसे ठोक दो !!

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